उड़ा जाता है चांद, छोर मिलता नहीं। खुशियों का चांद, अब खिलता नहीं। चांद का रंग रूप, कुछ अलग ढ़ंग का। अब चांदनी से चांद, कहीं मिलता नहीं।
~ जितेंद्र मिश्र ‘भरत जी’
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