काले गरजते बादलों को धुआँ समझा हैं
मैंने आँधियों को भी हवा समझा हैं…
गिले शिकवे की मुराद हैं उन्हें हमसे
अब क्या बताए हमने दर्द को तो अपनी मेहबूबा समझा हैं
भरा दिल तोड़े कोई और वजह कोई
किसी को कितना कोसे अब हमने खुद को बेवफा समझा हैं
कई आए इस जलती शमा को बुझाने
यूँ ही बुझा जाए, क्या हलवा समझा हैं
~ Kshitij Muktikar
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