एक मशवरा चाहिए था साहेब,
दिल तोड़ा है एक बेवफा ने, जान दे दूं या जाने दूं।
तेरी चाहत में रुसवा यूं सरे बाज़ार हो गये,
हमने ही दिल खोया और हम ही गुनाहगार हो गये।
सीख नहीं पा रहा हूँ मीठे झूठ बोलने का हुनर,
कड़वे सच ने हमसे न जाने कितने लोग छीन लिए।
लोगों की नज़रों में फर्क अब भी नहीं है,
पहले मुड़ कर देखते थे अब देख कर मुड़ जाते हैं।
मसला ये नहीं है के दर्द कितना है,
ग़ालिब, मुद्दा ये है कि परवाह किस किस को है
एक गफ़लत सी बनी रहने दो, हर रिश्ते में..
किसी को इतना न जानो कि जुद़ा हो जाये।
क्या बेचकर हम ख़रीदें फ़ुर्सत-ऐ-जिंदगी,
सब कुछ तो गिरवी पड़ा है ज़िम्मेदारी के बाज़ार में।
पूछने से पहले ही.. सुलझ जाती हैं सवालों की,
गुत्थियां.. कुछ आँखें इतनी हाजिर जवाब होती हैं।
जिसने कतरे भर का भी किया है एहसान हम पर,
वक्त ने मौका दिया तो दरिया लौटाएँगे हम उन्हें।
तेरी यादों की नौकरी में, गज़ल की पगार मिलती है,
खर्च हो जाते हैं झूठे वादे, व़फा कहाँ उधार मिलती है।
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